Tuesday Mar 23, 2010

मेघ-गीत

उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन

घिरा व्योम सारा कि बहता प्रभंजन

अँधेरी उभरती अवनि पर निशा-सी

घटाएँ सुहानी उड़ीं दे निमन्त्रण !

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कि बरसो जलद रे जलन पर निरंतर

तपी और झुलसी विजन-भूमि दिन भर,

करो शान्त प्रत्येक कण आज शीतल

हरी हो, भरी हो प्रकृति नव्य सुन्दर !

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झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी हो,

जगत मंच पर सौम्य शोभा खड़ी हो,

गगन से झरो मेघ ओ! आज रिमझिम,

बरस लो सतत, मोतियों-सी लड़ी हो !

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हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी

मिटा दी सभी उष्णता की निशानी,

नहाती दिवारें नयी औ पुरानी

डगर में कहीं स्रोत चंचल रवानी !

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कृषक ने पसीने बहाये नहीं थे,

नवल बीज भू पर उगाये नहीं थे,

सृजन-पंथ पर हल न आये अभी थे

खिले औ पके फल न खाये कहीं थे !

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दृगों को उठा कर, गगन में अड़ा कर

प्रतीक्षा तुम्हारी सतत लौ लगा कर

हृदय से, श्रवण से, नयन से व तन से,

घिरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर !

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अजब हो छटा बिजलियाँ चमचमाएँ,

अँधेरा सघन, लुप्त हो सब दिशाएँ

भरन पर, भरन पर सुना राग नूतन

नया प्रेम का मुक्त-संदेश छाये !

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विजन शुष्क आँचल हरा हो, हरा हो,

जवानी भरी हो सुहागिन धरा हो,

चपलता बिछलती, सरलता शरमती,

नयन स्नेहमय ज्योति, जीवन भरा हो !

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